अंधेर नगरी
पात्र : महंत, कुँजड़िन, नारायणदास, हलवाई, गोवर्धनदास, शिष्य, राजा, फरियादी, कल्लू बनिया, चुने वाला, भिश्ती, कसाई, गडरिया, कोतवाल, सिपाही।
(परदा उठता है। शहर के बाहर खुली सड़क, महंत जी और उनके दो चेले बातें कर रहे है। )
महंत : बच्चा नारायणदास यह नगर तो दूर से बड़ा सुंदर दिखलाई पड़ता है। देख, कुछ भिक्षा मिले तो भगवान को भोग लगे।
नारायणदास : गुरु जी, नगर तो बहुत सुंदर है, और भिक्षा भी अच्छी मिले तो बड़ा ही आनंद हो।
महंत : बच्चा गोवर्धनदास तुम पश्चिम की ओर जाओ और नारायणदास तुम पूर्व की ओर जाएगा। (दोनों जाते हैं। )
गोवर्धनदास : (कुँजड़िन से) क्यों भाजी क्या भाव है?
कुँजड़िन: कोई भी भाजी लो सब टके सेर।
गोवर्धनदास : सब भाजी टके सेर ! वाह! वाह! बड़ा ही आनंद है। यहाँ सभी चीज़े टके सेर है। (वह हलवाई के पास जाता है। )
(हलवाई से) क्यों भाई हलवाई! मिठाई क्या भाव है ?
हलवाई : टके सेर।
गोवर्धनदास : सब टके सेर! इस नगरी का नाम क्या है?
हलवाई : अंधेर नगरी।
गोवर्धनदास : और राजा का नाम क्या है?
हलवाई : चौपट राजा।
गोवर्धनदास : वाह! वाह!
अंधेर नगरी, चौपट राजा।
टके सेर भाजी, टके सेर खाजा।
हलवाई : कुछ लेना हो तो ले लो।
गोवर्धनदास : भाई, भिक्षा माँग कर सात पैसे लाया हूँ, साढ़े तीन सेर मिठाई दे दो।
(महंत जी और नारायणदास एक ओर से आते हैं और दूसरी ओर से गोवर्धनदास आता है। )
महंत : बच्चा गोवर्धनदास, क्या भिक्षा लाया, गठरी तो भारी मालूम पड़ती है।
गोवर्धनदास : गुरु जी! सात पैसे भीख में मिले थे। उसी से साढ़े तीन सेर मिठाई मोल ली है।
महंत : बच्चा, नारायणदास ने मुझसे कहा था की यहाँ सब चीज़े टके सेर मिलती हैं, तो मैंने इसकी बात का विश्वास नहीं किया। तुम बताओ, यह कौनसी नगरी है ओर इसका राजा कौन है ?
गोवर्धनदास : गुरूजी यह अंधेर नगरी है, और इसका राजा है चौपट राजा! गुरूजी मैं तो इस नगर को छोड़कर नहीं जाऊँगा और जगह दिन-भर माँगो तो भी पेट नहीं भरता। मैं तो यहीं रहूँगा।
महंत : देखो मेरी बात मानो, नहीं तो पीछे पछताओगे। मैं तो जाता हूँ, पर इतना कहे जाता हूँ कि कभी संकट पड़े तो याद करना। (यह कहते हुए महंत चले जाते हैं।)
(दरबार का दृश्य - राजा, मंत्री और सिपाही यथास्थान बैठे हैं। परदे के पीछे 'दुहाई है' का शब्द सुनाई देता है। )। र
राजा : कौन चिल्ला रहा है ? उसे बुलाओ! (दो सिपाही फरियादी को लाते है। )
फरियादी : दुहाई महाराज, दुहाई।
राजा : बोलो क्या हुआ?
फरियादी : महाराज कालू बनिए की दीवार गिर पड़ी, सो मेरी बकरी उसके नीचे दब गई। न्याय हो।
राजा : कल्लू बनिए को पकड़ लाओ। (सिपाही दौड़कर बाहर से कल्लू बनिए को पकड़ लाते हैं। )
राजा : क्यों रे कारीगर, इसकी बकरी कैसे मर गई ?
कारीगर : महाराज चुने वाले ने चुना इतना खराब बनाया कि दीवार गिर पड़ी।
राजा : अच्छा उस चुने वाले को बुलाओ। (कारीगर निकल जाता है। चूनेवाला पकड़कर लाया जाता है। )
राजा : क्यों रे चुने वाले, इसकी बकरी कैसे मर गई ?
चूनेवाला : महाराज, भिश्ती ने चुने में पानी ज्यादा डाल दिया, इसी से चुना कमजोर हो गया।
राजा : तो भिश्ती को पकड़ो? (भिश्ती लाया जाता है। )
राजा : क्यों रे भिश्ती, इतना पानी क्यों डाल दिया कि दीवार गिर पड़ी और बकरी दबकर मर गई?
भिश्ती : महाराज, गुलाम का कोई कुसूर नहीं, कसाई ने मशक इतनी बड़ी बना दी थी कि उसमें पानी ज्यादा आ गया। (सिपाही भिश्ती को निकलते हैं। कसाई को लाते हैं। )
राजा : क्यों रे कसाई, तुमने ऐसी मशक क्यों बनाई?
कसाई : महाराज, गडरिये ने टके की ऐसी बड़ी भेड़ मेरे हाथ बेचीं कि मशक बड़ी बन गई।
राजा : अच्छा कसाई को निकालो, गड़रिये को लाओ।
(कसाई निकाला जाता है, गडरिया लाया जाता है। )
राजा : क्यों रे गड़रिये, ऐसी बड़ी भेड़ क्यों बेचीं?
गडरिया : महाराज उधर से कोतवाल की सवारी आई, उसकी भीड़-भाड़ के कारण मैंने छोटी-बड़ी भेड़ का ख्याल ही नहीं किया, मेरा कुछ कुसूर नहीं।
राजा : इसको निकालो, कोतवाल को पकड़कर लाओ। (कोतवाल को पकड़कर लाया जाता है। )
राजा : क्यों रे कोतवाल, तुमने सवारी इतनी धूमधाम से क्यों निकाली कि गड़रिये ने घबराकर बड़ी भेड़ बेच दी?
कोतवाल: महाराज, मैंने कोई कसूर नहीं किया।
राजा : कुछ नहीं ले जाओ कोतवाल को अभी फाँसी दे दो। (सिपाही कोतवाल को पकड़कर ले जाते हैं। )
(दूसरी ओर गोवर्धनदास बैठा मिठाई खा रहा है। )
गोबर्धनदास :गुरु जी ने हमको नाहक यहाँ रहने को मना किया था। माना कि देश बहुत बुरा है, पर अपना क्या? खाते-पीते मस्त पड़े हैं।
(इतने में चार सिपाही चारों ओर से आकर उसको पकड़ लेते हैं। )
सिपाही : अरे चल, मिठाई खाकर खूब मोटा हो गया है। आज मजा मिलेगा।
गोबर्धनदास : (घबराकर) हैं! यह आफत कहाँ से आई, अरे भाई, मैंने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है, जो मुझे पकड़ा है।
सिपाही : बात यह है कि कल कोतवाल को फाँसी का हुक्म हुआ था। जब उसे फाँसी देने लगे तो देखा कि फाँसी का फंदा तो बड़ा है और कोतवाल साहब तो दुबले हैं। हम लोगों ने महाराज से अर्ज की। इस पर हुक्म हुआ कि किसी मोठे आदमी को फाँसी दे दो, क्योंकि बकरी के मरने के अपराध में किसी-न-किसी को सजा होना जरूरी है, नहीं तो न्याय नहीं होगा।
गोबर्धनदास : दुहाई परमेश्वर की। अरे में नाहक मारा जा रहा हूँ। अरे यहाँ बड़ा ही अंधेर है, गुरु जी आप कहाँ हो, आओ मेरे प्राण बचाओ मुझे बेकसूर ही फाँसी दे रहे हैं।
(गोबर्धनदास चिल्लाता है, सिपाही उसे पकड़कर ले जाते है। )
सिपाही : चुप रहो! राजा का हुक्म भला कहीं टल सकता है।
गोबर्धनदास : हाय, मैंने गुरूजी का कहना न माना, उसी का यह फल है। गुरु जी कहाँ हो बचाओ, गुरु जी! गुरु ज।
(गुरूजी का मंच पर प्रवेश)
महंत : अरे बच्चा गोबर्धनदास, तेरी यह क्या दशा है?
गोबर्धनदास : (हाथ जोड़कर) गुरूजी, दीवार के नीचे बकरी दब गई जिसके लिए मुझे फाँसी दी जा रही है। गुरूजी बचाओ।
महंत : कोई चिंता नहीं, (भौहें चढ़ाकर सिपाहियों से) सुनो, मुझे शिष्य को अंतिम उपदेश देने दो। (सिपाही उसे थोड़ी देर के लिए छोड़ देते हैं, गुरु जी चेले को कान में समझाते हैं। )
गोबर्धनदास : तब तो गुरूजी, हम अभी फाँसी चढ़ेंगे।
महंत : नहीं बच्चा, हम बूढ़े हुए हमको चढ़ने दो।
(इस प्रकार दोनों हुज्जत करते हैं, सिपाही लोग चकित होते हैं, राजा, मंत्री और कोतवाल आते हैं। )
राजा : यह क्या गोलमाल है?
सिपाही : महाराज, चेला कहता है मैं फाँसी चढूँगा। गुरु कहता है मैं चढूँगा। कुछ मालूम नहीं पड़ता कि क्या बात है?
राजा : (गुस्से से) बाबाजी, बोलो! आप फाँसी क्यों चढ़ना कहते हैं?
महंत : राजन, इस सुबह घड़ी में जो मरेगा, सीधा स्वर्ग जाएगा।
मंत्री : तब तो हम ही फाँसी चढ़ेंगे।
गोबर्धनदास : नहीं हम! हमको हुक्म है।
कोतवाल : हम लटकेंगे, हमारे सबब से तो दीवार गिरी।
राजा : चुप रहो सब लोग! राजा के जीते जी और कौन स्वर्ग जा सकता है? हमें फाँसी चढ़ाओ। जल्दी-जल्दी करो।
(राजा को फाँसी पर लटका देते हैं। )
परदा गिरता है।
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