Header Ads Widget

Responsive Advertisement

हिरनी का बलिदान deer sacrifice story in hindi

 हिरण का बलिदान - Hiran ka balidan

बसंत बीत चुकी थी।  गर्मी ने दस्तक दे दी थी।  गंगा नदी में धीरे-धीरे पानी बढ़ने लगा था।  मैं उस दिन गंगा नदी की ओर कंधे पर अंगोछा लिए जा रहा था।  तभी मुझे दो प्यासे हिरण (माँ व उसका पुत्र) गंगा तट पर पानी पीते दिखाई दिए।  तभी मेरे मन में हिरण के बच्चे को पकड़ने की इच्छा जागृत हो गई। मैंने दौड़ लगाई और उनके भागने से पहले ही बच्चे को पकड़ लिया था। 

मैं मृग-शावक को मरने की चेष्टा नहीं कर रहा था। हिरण के बच्चे को पकड़ने के शौक से में मुक्त नहीं हो पा रहा था। 

घर लाकर मुझे उसके साथ ज्यादा माथापच्ची नहीं करनी पड़ी।  बागों के फल, हरे-भरे शाक और दूध-रोटी खाकर एक ही महीने में वह हष्ट-पुष्ट हो गया। मैंने उसका नाम चंचल रखा।  वह नाम के अनुरूप सार्थक ही था।  परंतु धीरे-धीरे उसकी चंचलता, उपद्रव का रूप लेने लगी। वह कभी काम के कागज चबा जाता, कभी कपड़े चिर-फाड़ डालता।  उसकी हरकतों से तंग आकर परिवार वालों ने उसे जंगल में छोड़ आने को कह दिया। 

मुझे विवश होकर परिवार वालों की बात माननी पड़ी और उसे वहीँ छोड़ कर आया जहाँ से उसकी माँ से बलपूर्वक छीना था। 

एक बार मैं उसका हाल जानने जंगल में गया तो उसे झुंड से अलग एक पेड़ के नीचे बैठे पाया।  क्योंकि कठोर हृदय झुंड ने उसे त्याग दिया था।  केवल एक ही हिरणी उसके आसपास मँडराती दिखाई दी।  लेकिन जब चंचल उसके पास जाने की कोशिश करता तो वह झाड़ियों में अंतरध्यान हो जाती। 

मैं यह सोचकर खुश हो रहा था कि शायद वह हिरणी चंचल की माँ है।  दोनों का एक दिन सुखद मिलन हो जाएगा।  दस दिन बाद अपने मित्र का पत्र पाकर फिर से मुझे उस जंगल में जाना पड़ा।  वह यह जानना चाहता था कि हिरण रात्रि में किस प्रकार अपनी रक्षा करते हैं। 

इसलिए मैंने भी कुछ रात वन में ही रहने का निश्चय किया। 

रात बिताने के लिए हिरण गंगा पर रेतीले मैदान में इकट्ठे हुआ करते थे।  इस मैदान से सौ गज दूर ऊँचे पेड़ पर मचान बाँधकर मैं प्रतिदिन बैठने लगा।  दूरबीन, टोर्च, मशाल, कुल्हाड़ी और रात भर के लिए जल लेकर सायंकाल होते ही उस पर बैठ जाता कर हिरण-मंडली की गतिविधियों का निरीक्षण किया करता था। 

नदी के विशाल रेतीले मैदान में चार-पाँच सौ हिरण नित्य रात्रि विश्राम करते। बीच में बच्चे और उनकी माताएँ उनके आसपास वृद्ध हिरण और उनको चारों ओर से घेरकर युवा हिरण-हिरणियाँ अर्ध-निद्रा में सोती थी।  इस सोती हुई मंडली से कुछ दूर आठ-दस साहसी हिरण पास की झाड़ियों की ओट में खड़े रहकर पहरेदारी करते थे।  ये साहसी हिरण जरा भी खतरा भाँप कर कवाऊं-कवाऊं करते होंगे। 

एक रात मेरे मचान से नीचे की झाड़ियों में से निकलकर एक नौजवान बाघ दबे पाँव हिरण-मंडली की ओर चला जा रहा था।  मैंने तुरंत दूरबीन उठा ली।  देखा तो एक हिरण मंडली से बीच-पचीस कदम दूर सो रहा था।  देखते ही मैंने पहचान लिया वह चंचल ही था। बाघ और चंचल में पचास-साठ कदम का ही अंतर रह गया होगा कि सारी सकती बटोर कर मैं उनके साथ 'क्याउ-क्याउ' बोल उठा।  सभी हिरण एक साथ हवा से बातें करने लगे।  पल भर में ही सारा मैदान साफ हो गया। 

परंतु बाघ ने धीमी गति से जाती एक हिरणी को अपना लक्ष्य बना लिया था।  शिकार पट्टू बाघ ने उसे घेर लिया था।  हिरणी के सामने बचने का कोई उपाय नहीं था।  लेकिन तभी बिजली की गति से एक हिरण बाघ और हिरणी के बीच आ गया। मैंने देखा, वह और कोई नहीं, मेरा चंचल ही था। 

धीरे-धीरे मामला स्पष्ट हो गया कि बाघ से बचकर जो हिरणी चंचल के आने से भागी थी वह चंचल की माँ थी।  चंचल ने अपने प्राणों की बलि देकर अपने कर्तव्य का पालन किया।  चंचल जान-बुझ कर अपनी माँ को बचने के लिए बाघ के सामने आ गया था। 

Post a Comment

0 Comments