हॉकी का जादूगर हिंदी कहानी क्लास ५ Major Dhyan Chand
मेजर ध्यानचंद का नाम तो आपने अवश्य सुना होगा। हॉकी के क्षेत्र में उनका नाम 'न भूतो न भविष्यति' की उक्ति को सही अर्थो में चरितार्थ करके दिखा दिया है, में आता है। उन्हें 'हॉकी के जादूगर' के रूप में भी जाना जाता है।
भारत के किसी अन्य ख़िलाड़ी को शायद ही इतनी लोकप्रियता प्राप्त हुई हो जितनी कि मेजर ध्यानचंद को प्राप्त हुई।
मेजर ध्यानचंद का जन्म प्रयाग के एक सामान्य राजपूत परिवार में २९ अगस्त, १९०५ में हुआ था। उनके पिता सेना में एक मामूली सिपाही थे। मेजर ध्यानचंद एक साधारण स्कूल में पढ़े। खेल-कूद में भी उनकी कोई खास रूचि नहीं थी। मगर कुछ बात तो थी जिसके कारण वह सतत साधना और अभ्यास से ही उस स्थान पर पहुँच गये जहाँ आज तक दुनिया का कोई हॉकी ख़िलाड़ी नहीं पहुँच पाया। झाँसी से पढ़ाई करके वे सेना में भर्ती हो गए। तब तक भी हॉकी के प्रति कोई विशेष लगाव उनमें नहीं था।
मेजर ध्यानचंद को हॉकी सीखाने का श्रेय उनकी रेजिमेंट के सूबेदार मेजर तिवारी को है। मेजर तिवारी की देख-रेख में ये हॉकी खेल के प्रति इतने आकृष्ट हुए कि हॉकी और गेंद को अपनी चिरसंगिनी मान लिया। उनका खेल देखकर बड़े-से-बड़े हॉकी ख़िलाड़ी भी दाँतों तले उँगलियाँ दबाने लगे । एक बार इनकी रेजिमेंट का दूसरी रेजिमेंट से मैच हो रहा था। इनकी टीम दो गोल से पीछे थी केवल चार मिनट बाकी थे। तभी इनके कमांडिंग ऑफिसर ने कहा, "आगे बढ़ो जवानो कुछ तो करो ध्यान। " बस तभी ध्यानचंद के शरीर में बिजली आ गई और अगले चार मिनट में तीन गोल करके उन्होंने वह काम कर दिखाया जो शायद ही कोई और ख़िलाड़ी कर सके। तभी से उनका नाम पुरे देश में छा गया। ध्यानचंद सेंटर फॉरवर्ड के स्थान पर खेलते थे और हमेशा इसी स्थान पर खेले। फॉरवर्ड ख़िलाड़ी पर ही गोल की सबसे ज्यादा जिम्मेदारी होती है।
आज से लगभग नब्बे वर्ष पूर्व अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिता के लिए भारतीय हॉकी के चोटी के खिलाड़ियों में ध्यानचंद नामक एक पतले सैनिक को भी चुना गया। १९२६ में भारतीय सेना के हॉकी दल को न्यूज़ीलैंड भेजा गया। यह दौरा मेजर ध्यानचंद के लिए बहुत महत्वपूर्ण रहा। न्यूज़ीलैंड की मजबूत टीम व वहाँ के दर्शक मेजर ध्यानचंद का खेल और उनके गोल करने की व्यूह-रचना देखकर हतप्रभ रह गए। उसके बाद वे अंतरराष्ट्रीय स्तर के ख़िलाड़ी बन गए। अब उनका नाम दुनिया भर के हॉकी प्रेमियों की जुबान पर था।
ध्यानचंद के खेल से प्रसन्न होकर सेना के अधिकारियों ने उन्हें सिपाही से लांस नायक बना दिया। १९२८ में ध्यानचंद भारतीय टीम के साथ एम्स्टरडम ओलंपिक में भाग लेने गए। १९३२ के ओलंपिक खेलों तक वे नायक बन चुके थे। १९३८ में वे जमादार, फिर सूबेदार, कैप्टन और बाद में मेजर नियुक्त किए गए।
एम्स्टरडम (१९२८) और लॉस ऐंजिलस (१९३२) की ओलंपिक प्रतियोगिता जितने के बाद भारतीय टीम १९३६ में बर्लिन ओलंपिक में भाग लेने गई। तब दर्शक इनका चमत्कारी खेल देख दंग रह गए। दर्शको और अधिकारियों को शक हुआ कि कहीं इस ख़िलाड़ी ने अपनी स्टिक के साथ कोई चुंबकीय शक्ति तो नहीं लगा रखी है जिसके कारण गेंद हमेशा उनकी स्टिक के साथ चिपकी रहती है। बात जब हद से बढ़ गई तो इनसे दूसरी स्टिक से खेलने के लिए कहा गया। परंतु दूसरी स्टिक से भी ध्यानचंद ने दनादन गोल करने शुरू कर दिए और दर्शको को अपने खेल से इतना प्रभावित कर दिया कि उन्हें स्वीकार करना पड़ा कि यह ख़िलाड़ी तो 'हॉकी का जादूगर' है। जर्मनी में दर्शक ध्यानचंद के खेल से इतने प्रभावित हुए कि ध्यानचंद को प्रशंसको से बचाने के लिए कई बार पुलिस को बुलाना पड़ा।
बर्लिन ओलंपिक खेलों के समय ध्यानचंद अपने सर्वोत्कृष्ट काल में थे। जर्मन तानाशाह हिटलर ने उनसे विशेष तौर पर हाथ मिलाया और जर्मनी में अच्छे पद पर कार्य करने के लिए आमंत्रित किया; परंतु मेजर ध्यानचंद ने भारत के प्रति अपने देश प्रेम के कारण तानाशाह हिटलर का आमंत्रण ठुकरा दिया। द्वितीय विशवयुद्ध के पश्चात् ध्यानचंद ने हॉकी के खेल से सन्यास ले लिया। एक समारोह में मेजर ध्यानचंद ने बड़े विनम्र भाव से कहा था "हॉकी के क्षेत्र में जो थोड़ी बहुत सेवाएँ मुझ से बन पड़ी है, उनका कारण मेरे देशवासियों का मेरे प्रति प्रेम और स्नेह है। तरुण हॉकी खिलाड़ियों से मैं हमेशा यही कहूँगा, अपने देश का झंडा ऊँचा रखो "
सन १९६८ की मैक्सिको ओलंपिक खेल प्रतियोगिताओं के अवसर पर ध्यानचंद को विशिष्ट अतिथि के रूप में बुलाकर सम्मानित किया गया। वह स्वयं स्वीकार करते हुए कहते है, "मैं आज जो कुछ भी हूँ, हॉकी की बदौलत ही हूँ। हॉकी खेलते समय मुझे असीम आनंद का अनुभव प्राप्त होता है। "
दिसंबर १९७९ को हॉकी के इस महान ख़िलाड़ी 'जादूगर' का झाँसी मेँ निधन हो गया। उन्होंने ख़िलाड़ी, प्रशिक्षक और सलाहकार के रूप मेँ भारतीय हॉकी की जो सेवा की है, उसके लिए भारत देश व भारतीय हॉकी मेजर ध्यानचंद की सदैव ऋणी रहेगी। मेजर ध्यानचंद का नाम इतिहास के पन्नों मेँ स्वर्ण अक्षरों से हमेशा लिखा रहेगा।
शब्दार्थ
न भूतो न भविष्यति - न हुआ न होगा
चरितार्थ - ठीक उतरने वाला
प्रश्न: हॉकी के जादूगर के नाम से किसको जाना जाता है ?
उत्तर: हॉकी के जादूगर के नाम से मेजर ध्यानचंद को जाना जाता है।
प्रश्न: मेजर ध्यानचंद का जन्म कब और कहाँ हुआ था?
उत्तर: मेजर ध्यानचंद का जन्म प्रयाग मेँ २९ अगस्त १९०५ मेँ हुआ था।
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