किरात-अर्जुन युद्ध (महाभारत का प्रसंग)
यह बात उस समय की है जब कुंती अपने पाँचो पुत्रों के साथ जंगल में जीवन व्यतीत कर रही थी। सभी पांडव अपनी-अपनी शक्तियाँ बढ़ाने के लिए तप व यज्ञ करके दिव्य अस्त्र-शस्त्र प्राप्त कर रहे थे। अर्जुन भी पशुपति नामक एक बलशाली दिव्यास्त्र प्राप्त करने के लिए भगवान शिव की तपस्या कर रहे थे।
एक रोज अर्जुन जब रोज की तरह शिव की आराधना में लीन थे तभी एक भयानक सूकर गरजता हुआ वहाँ आ पहुँचा तथा वह अर्जुन पर हमला करने के लिए ताल ठोंकने लगा। सूकर की आवाज़ से अर्जुन का ध्यान भंग हो गया। अर्जुन ने धनुष-बाण उठाकर सूकर पर बाण चला दिया।
अर्जुन दौड़ कर अपने शिकार के पास गए तो देखा सूकर के शरीर पर दो तीर लगे हुए है। अर्जुन ने तीर निकालने के लिए हाथ बढ़ाया ही था कि एक जोरदार आवाज़ सुनाई दी -"सावधान तपस्वी, उसे हाथ मत लगाना। वह मेरा शिकार है।" अर्जुन ने देखा एक जंगली किरात धनुष-बाण लिए दौड़ा चला आ रहा था।
चौड़ा माथा जंगली बेल बंधी हुई, शरीर पर मृगचर्म पहने, शरीर बहुत शक्तिशाली मालूम दिखाई दे रहा था। अर्जुन ने कहा -"इस सूकर का शिकार मैंने किया है। जिस समय मैंने बाण मारा, उस समय इसके शरीर पर कोई बाण नहीं लगा हुआ था। इसलिए मैं उसे नहीं छोड़ सकता। " किरात ने क्रोध में अपना धनुष-बाण आगे बढ़ाया और बोला, "यदि तुमने यह शिकार मुझे नहीं दिया तो मुझसे युद्ध करना पड़ेगा। " बात बढ़ती गई।
कोई भी शिकार को छोड़ने को तैयार नहीं हुआ। देखते-देखते दोनों के बीच भीषण युद्ध प्रारम्भ हो गया। बाण पर बाण बरसते रहे पर कोई भी हार मैंने को तैयार नहीं था। अर्जुन स्वयं अपने को सर्वश्रेष्ट धनुर्धर मानते थे लेकिन किरात की फुर्ती देखकर उनके आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा।
एक साधारण शिकारी के सामने अर्जुन को अपनी पूरी ध्नुर्विद्या का प्रयोग करना पड़ रहा था लेकिन उसके द्वारा छोड़े बाण किरात को छू भी नहीं पा रहे थे। कई घंटो के युद्ध के बाद अर्जुन हताश होने लगे। उन्हें लगा यह किरात ध्नुर्विद्या से हार नहीं मानेगा। तब अर्जुन ने किरात से कहा, "हे किरात! मैं तुम से मल्लयुद्ध करना चाहता हूँ। "किरात, अर्जुन से मल्लयुद्ध करने लगा। अब दोनों पहलवानों की तरह चक्कर काट-काट कर पैंतरे भरते हुए आपस में गुत्थम-गुत्था होने लगे। कभी कोई पटखनी देता तो कभी कोई। किरात का मल्लयुद्ध में भी पलड़ा भारी होने लगा।
अंत में तो किरात ने कई बार अर्जुन को पटखनी दे डाली। अर्जुन ने हार नहीं मानी तो किरात ने अर्जुन को उठाकर बहुत दूर फेंक दिया। अर्जुन धूल झाड़ कर फिर खड़े हो गए। उन्हें यकीन ही नहीं हो रहा था कि एक साधारण किरात भी इतना शक्तिशाली हो सकता है। तभी अर्जुन की नज़र अपने करों से बनाए शिवलिंग पर पड़ी तो वे बोले - हे किरात! तुमसे युद्ध करने में बड़ा मजा आ रहा है लेकिन जरा ठहरो, मैं कुछ देर भगवान शंकर की आराधना कर लूँ फिर तुमसे युद्ध करूँगा।
अर्जुन इतना कहकर भगवान शिव की आराधना में लीन हो गए। लेकिन यह क्या? वे शिव पर जो भी पुष्प-पत्र चढ़ाते, वे जाकर स्वयंमेव किरात के ऊपर गिरने लगते। माला भी किरात के गले में जा पड़ी। यह देख अर्जुन हाथ जोड़ किरात के आगे खड़े होकर बोले, "आप साधारण किरात तो नहीं हो।
आप अवश्य ही कोई देव हैं। कृपया अपना सही परिचय दीजिये।" देखते-ही-देखते किरात की जगह मुस्कराते हुए भगवान शंकर साक्षात प्रकट हो गए और बोले - हे अर्जुन! तुम मेरी परीक्षा में सफल हो गए। तुम वास्तव में वीर हो। इतनी कठिनाई के बावजूद तुमने मुझे एक साधारण आदमी समझकर अपने दिव्यास्त्रों का प्रयोग मुझ पर नहीं किया। " और भगवान शंकर ने अर्जुन को पशुपति नामक अमोघ दिव्यास्त्र दे दिया जिससे अर्जुन अजेय हो गए।
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