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Ramdhari Singh Dinkar poems

Ramdhari Singh Dinkar poems in Hindi

श्री रामधारी सिंह दिनकर जी का जनम 24 सितंबर 1908 को बिहार राज्य के बेगूसराय जिले में हुआ था।  रामधारी सिंह दिनकर हिंदी के बहुत ही प्रभावी कवि, प्रमुख लेखक एवं निबंधकार के रूप में जाने जाते है | इनका नाम अपने समय के सबसे श्रेष्ठ वीर रस के कवियों में सुमार किया गया है | स्वतन्त्रता से पूर्व दिनकर जी एक विद्रोही व् आक्रोशित कवि के रूप में जाने गए तथा स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद उनको राष्ट्रकवि का दर्जा भी प्रदान किया गया | उन्हें पहली पीढ़ी का छायावादोत्तर कवि कहा गया है | निचे प्रस्तुत की गयी प्रसिद्ध कवितायेँ दिनकर जी द्वारा ही रचित की गयी है। 

1. सच है विपत्ति जब आती है Sach Hai Vipatti Jab Aati Hai lyrics

2. सिंहासन खाली करो कि जनता आती है। - Sinhasan Khali Karo ki Janta Aati Hai


सच है विपत्ति जब आती है

कायर को दहलाती है,

सूरमा नहीं विचलित होते

क्षण एक नहीं धीरज खोते। 

विघ्नों को गले लगते हैं,

काँटों में राह बनाते हैं। 

है कौन विघ्न ऐसा जग में। 

टिक सके आदमी के मग में,

ख़म ठोंक ठेलता है जब नर

पर्वत के जाते पाँव उखड़। 

मानव जब जोर लगाता है,

पत्थर पानी बन जाता है। 

गुण बड़े एक से एक प्रखर

हैं छिपे मानवों के भीतर

मेहंदी में जैसे लाली हो

वर्तिका बीच उजियाली हो। 

बत्ती जो नहीं जलाता है,

रोशनी नहीं वह पता है। 


2. सिंहासन खाली करो कि जनता आती है। - Sinhasan Khali Karo ki Janta Aati Hai


सदियों की ठण्डी-बुझी राख सुगबुगा उठी,

मिट्टी सोने का ताज पहन इठलाती है

दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो,

सिंहासन खाली करो कि जनता आती है ।


जनता? हाँ, मिट्टी की अबोध मूरतें वही,

जाड़े-पाले की कसक सदा सहनेवाली,

जब अँग-अँग में लगे साँप हो चूस रहे

तब भी न कभी मुँह खोल दर्द कहने वाली ।


जनता? हाँ, लम्बी-बडी जीभ की वही कसम,

जनता,सचमुच ही, बडी वेदना सहती है।

सो ठीक, मगर, आखिर, इस पर जनमत क्या है ?

है प्रश्न गूढ़ जनता इस पर क्या कहती है ?


मानो,जनता ही फूल जिसे अहसास नहीं,

जब चाहो तभी उतार सजा लो दोनों में

अथवा कोई दूध-मुँही जिसे बहलाने के

जन्तर-मन्तर सीमित हों चार खिलौनों में ।


लेकिन होता भूडोल, बवण्डर उठते हैं,

जनता जब कोपाकुल हो भृकुटि चढाती है

दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो,

सिंहासन खाली करो कि जनता आती है ।


हुँकारों से महलों की नींव उखड़ जाती,

साँसों के बल से ताज हवा में उड़ता है,

जनता की रोके राह, समय में ताव कहाँ ?

वह जिधर चाहती, काल उधर ही मुड़ता है ।


अब्दों, शताब्दियों, सहस्त्राब्द का अन्धकार

बीता, गवाक्ष अम्बर के दहके जाते हैं

यह और नहीं कोई, जनता के स्वप्न अजय

चीरते तिमिर का वक्ष उमड़ते जाते हैं ।


सब से विराट जनतन्त्र जगत का आ पहुँचा,

तैंतीस कोटि-हित सिंहासन तय करो

अभिषेक आज राजा का नहीं, प्रजा का है,

तैंतीस कोटि जनता के सिर पर मुकुट धरो ।


आरती लिए तू किसे ढूँढ़ता है मूरख,

मन्दिरों, राजप्रासादों में, तहखानों में?

देवता कहीं सड़कों पर गिट्टी तोड़ रहे,

देवता मिलेंगे खेतों में, खलिहानों में ।


फावड़े और हल राजदण्ड बनने को हैं,

धूसरता सोने से शृँगार सजाती है

दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो,

सिंहासन खाली करो कि जनता आती है ।


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